Tuesday, November 10, 2009

क्वाद्रपीदिक भारत में

जान की फ़िल्म एक बहुत बढिया वृत्त-चित्र है । बहुत भावनाएँ मुझे देखते हुए आईं । यह कहानी जान की अनुभच भारत में बताती है । वह एक क्वाद्रपीदिक है , जो दुसरे क्वाद्रपीदिकों की मदद करनी चहता है । उसने इन हिन्दुस्तानी क्वाद्रपीदिकों को दिखाया और सीखाया , वे कैसे आत्मनिर्भर भी हो सकते हैं । बहुत क्वाद्रपीदिक सोचते हैं कि वे कुछ नहीं कर सकते हैं , कि उन्हें अपने दोस्तों और परिवार पर नीर्भर रहना पड़ते हैं , और इसी लिए उन्हें बहुत आशा ज़िनदगी के लिए नहीं है । बहुत तरीक़ाोओं की इसतेमाल करते हुए , जान उन्हें आशा देता हैं , और एक एसा तरीक़ा रगबी है । मैं हर व्यक्ति में रगबी खेलते हुए परिवर्तन देख सका , और उनकी तबदिलियाँ मुझे बहुत प्ररित की । सब व्यक्तियों की कहानी बहुत मर्मस्पर्शी हैं , लेकिन एक व्यक्ति की कहानी मुझे याद रहती है । यह लड़की जो सुपरस्टार व्यायामी होनी चाहती थी । वह एक क्वाद्रपीदिक हो जाने के बाद में उसकी स्कूल और दोस्तों ने उसे छोड़े । मैं कल्पाना कर नहीं सकता हूँ, अपनी चलने की आज़ादी अपनी सपना अपने दोसतों को सब खोना । लेकिन यह लड़की बहुत बलवान हो चुकी , जान से मिलने के पहले । आजकल वह अभी भी सुपरस्टार व्यायामी होनी चाहती है । कई बार मैं सोचता हूँ कि मेरी ज़िन्दगी बहुत मुश्किल है , कि मैं कुछ नहीं कर सकता हूँ क्योंकि मुझे बहुत ज़्यादा कमज़ोरियाँ हैं । लेकिन जान की फ़िल्म देखते हुए , मैं समझ गया कि जब भी मैं चाहता हूँ तब भी मैं हमेशा इन कमज़ोरियों के समने करने का फ़ैसला कर सकता हूँ । ज़िन्दगी में हमारे हमेशा बहुत विकल्प हैं , और लोग इस फ़िल्म में आज़ाद होना चुनते हैं । फ़िल्म से सबसे प्रश्णाजनक शबद हैं कि "सब लोगों की विकलांगताएँ हैं , सिर्फ़ कि क्वाद्रपीदिकों की ज़्यादा दीखती हैं । हमारा काम है , अपनी विकलांगताएँ अपने नए बल बदल देना "। मुझे इस फ़िल्म को देखकर बहुत ज़्यादा आशा आई ।

Monday, November 2, 2009

टैंगो समारोह

शुक्रवार मैं और दो दोस्त हम एक टैंगो समारोह गए , जो बोस्टन में है और बहुत मशहूर है । दुर्भाग्य से यह साल समारोह का अंतिम होगा । उसका नाम "मुरदों का टैंगो" है , क्योंकि हमेशा हालोवीन पर हो जाता है । इसी लिए मैं बहुत जाना चाहता था । दो साल से पहले मैं इस समारोह गया , लेकिन फिर मैं अपनी नाच की कुशलता के बारे में बहुत निडर नहीं था , तो मैं सिर्फ़ एक दिन के लिए रहा । इस साल मैं बहुत ज़्यादा तैयार हूँ , तो मुझे तीन दिनों रहने का इरादा था । पहले रात को जब हम पहूँचे तब बहुत लोग नाच रहे थे । टैंगो एक आसान नाच नहीं है , लेकिन अगर बहुत लोग नाच रहे हैं , तो नाच बहुत ज़्यादा मुश्किल हो जाता है । लेकिन हम नाचने के लिए यहाँ गए , तो हमने हाँसकर अपने नाच के जूते पहे और तब नाचने लगे । मैं बहुत महिलाऔं के साथ नाचा , और दुसरे दिन हम पाँच बजे सुबह तक नाचे (उस पिछले दिन हम बहुत नहीं सोए) । हमें बहुत माज़ा आया , और हम थोड़ा-सा उदास थे कि यह समारोह पहला था । लेकिन बहुत दुसरे समारोह होगे , दुसरे शहरों में होगे ।

Tuesday, October 13, 2009

लखनउइ रिकशेवाले

लखनऊ की सड़कों में अलग अलग लोग हैं , जिनकी तरह तरह के काम हैं । मैंने कुछ काम देखे, जो मुझे बहुत उदास कए ; जवान आदमी मलजल खोद रहे थे , बच्चे फल और सबज़ियाँ बेच रहे थे , बूढ़ी बूढ़ी औरतें रहियों के लिए अनाज भून रही थीं । इस शाहर में आप या तो काफ़ी अमीर हों या कहीं ग़रीब । इन ग़रीब लोगों के बीच एक तरह मुझे हामेशा याद रहती है : रिक्शेवाले । जब मैं उस शहर रह रहा था , हर दिन मुझे रिकशे का इस्तेमाल करना था , और सड़कों में आप बहुत-से रिकशे देखते हैं । ये आदमी साथ-वाले ग़ावों से आते हैं । उनके पास न पैसा न शिक्षा है , इस लिए वह काम करने अपने शरीर ही का निर्भर कर सकते हैं । जब मौसम गरम गरम था , जब कोई बहर रह नहीं पाता है , मैं अपने ए.सी. गाड़ी के अन्दार से कई रिक्शेवाले देख सका , जो उस गर्मी तो में ग्राहकों की तलाश कर रहे थे । एक रिक्शेवाले का मुख मुझे याद आता है ; बहुत थकावट था लेकिन बहुत दृढ़था भी थी ; उसके आँखें मुझसे बता रहे थीं कि मौसम चाहे कितना गरम हो , ग्राहक चाहे कितने अनुदार और मोटे हों , और ज़िंदगी चाहे कितनी मुश्किल हो , उसे अपना रिक्शा चला रहना था । एक दिन मैं रिक्शेवालों के बारे में ज़्यादा सीखना चाहता हूँ ।

Monday, October 5, 2009

मेरी नानीजी

कुछ बार हर साल हम अपनी नानीजी से मिलते हैं । मुझे मालुम नहीं वे कितने साल की है , लेकिन ज़रूरी ज़्यादा सत्तर साल से । जभी हम उनके यहाँ जाते हैं मेरा मामा उनके लिए बहुत खाने चाइनातान से खरीदता है । असल में वह हर महीने यह तरह के खाने अपनी माताजी को लाया करता है । जब मैं अपनी नानीजी के यहाँ हूँ मैं उनके साथ बहुत बातें नहीं करता हूँ । वे मुशकिल से सुनती हैं । लेकिन असली वजह है कि मैं इस महिला को नहीं जानता हूँ । उन्होंने हम लोगों का मदद कीं इस देश उत्प्रवास करने , बिजा उनके मदद के, मेरा परिवार और मेरा मामा और उसका परिवार हम इस देश जी नहीं सकते हैं । लेकिन वे कौन हैं ? उनका जीवन कैसे य़ा ? पहलेवाला और अभीवाला । मुझे मालूम सिर्फ़ थोरा-सा है । कहा जाता है कि उनका ज़्यादातर जवन में वे एक अमीर परिवार के लिए काम कर रही थीं । यह परिवार पहले हांगकांग में था (या ताइवान?) फिर लंदन और अंत में इस देश में । वे हमेशा इस अमीर परीवार के लिए घर का काम किया करती थीं , खाना बनाना, साफ़ करना , और जब परीवार में बेटे थे उनके पास बहुत ज़्यादा काम हुअ करती थीं । अमीर परिवार के लोग बहुत अच्छे हैं । पिताजी ने भी हमारा आप्रवासन मदद किया । वे मेरी नानीजी को हमेशा एक परिवार का सदस्या मानते हैं । जब हम अभी भी अपने पहले देश में रह रहे थे , जो एक बहुत ग़रीब देश ता , मेरी नानीजी पैसा बचाती रहीं ताकि वे हमें सब पैसा भेज सकीं । आजकल उन्हें किसका मदद करना नहीं है । जैसे वे अपनी परीवार के साथ नहीं रहीं वैसे वे अभी केला रहतीं हैं , लेकिन जभी मैं उन्हें देखता हूँ वे उदास नहीं लग रहीं हैं । हर दिन वे अपने घर के बहर आधे घंटे सैर किया करतीं हैं । और मेरी माता ने मुझे कहा कि अब नानीजी किताबें पढ़ने लगीं । वे कभी प्राइमरी स्कूल ख़त्म नहीं कर पाईं , ये महिला कैसे किताबें पढ़ सकतीं हैं ? लेकिन ये औरत बहुत-सी ज़्यादा मुशकिल चीज़ें पूरा कर चुकीं हैं !

Sunday, September 20, 2009

धोने के लिए नदी के पास

जबसे मैं भारत से वापस आया तबसे मैंने इस देश के बारे में बहुत नहीं सोचा है । लेकिन उस दिन जब मैं हिन्दुसतानी संगीत सुन रहा था , मैं उन छह हफ़तों की याद होने लगा । पहली याद कुछ धोबियों के बारे में थी । उस दिन मैं अकेला था , पैदल चल रहा था । मुझे बहुत गर्मी लग रही थी क्योंकी जून का शुरू था और मैं एक लकनउ की सड़क पर था । मैंने शाहर की नदी देखी , जिसका नाम गोमती है । मुझ और गोमती के बीच एक कुछ बड़ा हरा खेत था , जहाँ बहुत कपड़े और साड़ियाँ लटके हुईं । बहुत-से रंग थे : लाल , साफ़ेद , नारंगी , पीला , ज़िनदगी के सब रंग । और उन सब रंगों के बीच एक धोबी का परीवार था । वे साथ-साथ काम कर रहे थे । शरू में हमारी दूरी मुझे उनके चेहरे देखने नहीं दिया । तब मैंने अपना कैमरा निकाला , जिसका पास एक शक्तिशाली लेंस है , और कैमरे से मैं उन धोबियों के चेहरे देख सका । मैंने संसार में सबसे सुन्दर और असली हँसियाँ देखीं । कुछ मिनट बाद में , जब उन्होंने देखा कि मैं उन्हें फ़ोटो खींच रहा था , उनकी हँसियाँ ज़्यादा बड़ी हुईं । वे बात करने लगे । जैसे मैं उनके बारे में जिज्ञासू था वैसे वे मेरे बारे में जिज्ञासू थे । मैंने वह हँसी और जिज्ञासा पहचानी : गरीबी की निष्कपटता । वह मैंने गरीब लोगों में ही बहुत बार देखा हूँ । लोग जिनके पास ज़्यादा पैसा है उनकी यह सच्ची हँसी कभी नहीं है । गरीब लोगों को बहुत दुःख सहना पड़ता है , लेकिन उनके चेहरों में आप ज़्यादा ख़ूशी देख सकते हैं । वह संगीत जो मैं सुन रहा हूँ मुझे हिन्दुसतानी गरीब लोगों के दुःख और ख़ूशी की याद दिलाई ।

Monday, April 6, 2009

जूते के बिना

कल मुझसे कहा गया कि दिल्ली में बहुत-से ग़रीब लोगों के पास जूते नहीं हैं । मुझे बहुत आश्चर्य हुआ । जब मैं लोगों के बारे में सोचता हूँ जिन के पास जूते नहीं हैं तब मैं अफ़्रीकी गंव कल्पना करता हूँ , लेकिन एक दुन्या सब से बहुत बड़े अर्थशास्त्र के राजधानी में नहीं । डेढ़ साल पहले मैं काफ़ी-से चीनी गंवों में सफ़र कर रहा था , और मैंने कभी लोगों को देखा जिन ही के पास जूते नहीं थे (कुछ बच्चों को छोड़कर , जो जूते पहनना नहीं चाहते थे) । शायद आप पूछ रहे हों कि जूते पहनना क्यों अहम हैं । मेरे लिए जूते प्रतीक हैं । बहुत भारती कहते हैं कि अपना देश चीन से ज़्यादा शक्तिशाली होगा , कि वह दुन्या की अगली अतिशक्ति होगा । लेकिन ये लोग ज़्यादा ग़रीब नहीं हैं , या वे आम लोगों की ज़िन्दगियाँ नहीं समझना चाहते हैं । अभी भारत में बहुत लोगों के पास जूते नहीं , और उनके पास अच्छी तबियत भी नहीं , घर भी नहीं , काफ़ी शिक्षित भी नहीं । बहुत बच्चे मर जाते हैं , कुछ अफ़्रीकी देशों में से ज्यादा । लेकिन मैंने कभी भारत में सफ़र नहीं किया है , तो मुझे आशा है कि जब मैं यह बड़ा देश जाऊँगा तब मैं बेहतर समझऊँगा । शायद मई को ! शायद तब मैं देखना सकूँगा कि कितने लोगों के पास जूते नहीं होंगे ।

Sunday, March 8, 2009

हिन्दुस्तानी फ़िल्म

शुक्रवार रात को मैंने एक हिन्दुस्तानी फ़िल्म देखी । वह बॉलीवूड की फ़िल्म नहीं है । उसका नाम "वाटर" है (भारत में उसका नाम "१९४७" है) । जब मैंने पहली बार उसका "ट्रेलर" देखा , तब मैं गंभीर फ़िल्म देखने तैयार नहीं था । लेकिन शुक्रवार रात को मैंने कुछ हिन्दी सुनना चाहा , और मैं भूला कि वह एक गंभीर फ़िल्म थी । उसकी कहानी बहुत उदास है , लेकिन हिन्दुसतान के विभाजन की कहानियाँ सब बहुत उदास हैं । जब दोस्त धार्मिक कारण के लिए अपने दोस्तों को मार डालते हैं , तब दुनिया में कम आशा है । बाद में मैं एक छोटी मिठाई बनाकर फ़्लम के बारे में ज़्यादा सोचकर सो गया । लेकिन जब से मैंने यह फ़िल्म देखी, तब से मैं भारत के बारे में ज़्यादा सोच रहा हूँ । मैं इस देश के बारे में बहुत नहीं जानता हूँ , मैं कभी उसके बहुत-सारे लोगों के बारे में नहीं जानता हूँ । ज़रूर मैं कुछ हिन्दुस्तानी खाना जानता हूँ , (और आजकल मैं बहुत हिन्दुसतानी खाना बनाता हूँ) , औार मैं कुछ अम्रीकानी-हिन्दुस्तानियों से मिला हूँ । लेकिन मैं कभी भारत नहीं गया हूँ । देश के लोग , खाना , और संस्कृति समझने हमें वहाँ जाना हैं । शायद मैं मई यह सचमुच दिलचस्प देश जा सकूँगा ।